सीख कौम का विश्वास बहाल करने के लिए केंद्र और राज सरकार ने अपने व्यवहारों में तत्काल सुधार लाये

कल्याण केसरी न्यूज़ अमृतसर ,2 जून : इतिहास केवल बीती हुई घटना का क्रमवार जैसे ही नहीं यह कौमों की साँस -रग पर लगा हुआ मील पत्थर है। इतिहास, सुनहरी पन्नों के समूह का एक इस तरह का महल है, जिस में कौम के रहबर, संत महात्मा, शूरवीर -योद्धों और विद्वानों के बिंब से उस कौम की विलक्षणता और स्रेशठता का सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है। इतिहास, कौमों की नयी पीढ़ी के लिए एक गुडती, सीध और अंकुश है। इतिहास, समय की महत्वपूर्ण घटनाओं का ब्युरा ही नहीं यह तो एक अमर -सृजना और अमर संकल्प है, जिस को कौम के निरमातावें की तरफ से सृजन करा जाता है। अपने सीस कुर्बान करके इस संकल्प को, विरसे को और अपने रूप को कायम रखना धर्म के पैरोकारों का प्रारंभिक फ़र्ज़ हुआ करता है। इतिहास बीते समय में कौम के नेताओं से हुई गलतियाँ से नयी पीड़ाी को सचेत करता है। सियाही के साथ लिखे हुए इतिहास बहुत जल्दी धुंधक्ले पड़ जाते हैं परंतु खोद और सत्य -धर्म रूपी कलम के साथ हवा में लिखे हुए हर्फ़, इतिहास, न मिटते हैं और न ही औरंगजेब, ज़करिया ख़ान, मीर मानेगा, अब्दाली, अंग्रेज़ और इन जैसे ओर ज़ालिम हकूमतों मिटा सकतीं हैं।
”समय के हालातों ने कई कौमों के बड़े महलों को गिराा है परन्तु ऐसे महल को कोई आँच नहीं, जिस की नींव सत्य पर कायम हो और जिस महल को हड्डियों की ईंटों, रक्त और पिचकी का कीचड़, आस्था -भरोसे रूप स्तम्भों, विवेक की छत और श्रद्धा -भावना का लेप हो। जो इतिहास परमेशर की लहर में से प्रकट हुआ हो, ऐसे इतिहास के वारिसों को ख़त्म कौन कर सका है? यदि हमारे पास इतिहास न हो तो हमारे सामने सरहन्द की ख़ूनी दीवारों, चमकौर की कच्ची गढ़ी का नक्सा कौन चितरेगा। दसवाँ पिता सरी गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज ने पिता, माता ते चारों साहिबज़ादे सिक्ख कौम से बार दिए और ख़ालसे तरफ उंगली करकेहा
”इन पुतरन कर सीस परन्तु बार की पुत्र चार,
चार मुए से का भया जीवन कई हज़ार”।
ख़ालसे ने गुरू साहबानें के लिए हुई शिक्षा पर चलने का यत्न किया। गुरू साहबानें के बाद कौम के पहले जत्थेदार बाबा बन्दा सिंह जी बहादुर ने अपना बचा अपनी गोद में शहीद करवाया। भाई मनी सिंह ने बंद बंद कटवायहैं। बाबा दीप सिंह जी शहीद सिर तली पर रख कर लड़े। भाई तारु सिंह ने हँसते खोपड़ी उतरवा के लिए। सब का मकसद ज़ुल्म का मुकाबला करना था।
गुरू काल के बाद सिक्ख लहर ने भारत के उत्तरी हिस्के सामाजिक और राजनैतिक फिजा को हर पक्ष से बदल कर रख दिया। लगभग एक सौ साल तक का सिक्ख इतिहास बेहद संघरशमयी और शहीदियें वाला रहा है। उस समय मुग़ल हकूमत और अफगानों का मुकाबला करना बेहद कठिन और चुनौतियें वाला था, फिर भी अनेकों दुश्वारियों बरदाश्त कर कर भी दुशमण सामने सिक्ख चट्टान की तरह ठहरे रहे। अत्याचारों के साथ अपने सीमित साधनों के साथ टक्कर लेते रहे और दो सर्वनाों में हज़ारों ही सिक्खों की शहीदियें स्वीकृत हुई। जिन की याद लोग -मन में ताज़ा और कायम है। भारत की आज़ादी संघरश में सिक्खों ने बड़ा योगदान डालते बलियों और शहीदियों की महान परंपरा को ओर आगे तोरिया। आज़ादी मिलने के बाद भी सिक्खों ने अपने और दूसरों के हकों – हितों के लिए अनेकों मोर्चे लगाए और बलियों दीं। परन्तु 1984 में फ़ौज की तरफ से श्री दरबार साहब पर हमला और उस के बाद प्रधान मंत्री इंद्रा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली और देश के ओर हिस्सों में किया गया सिक्ख हत्याकांड वीं सदी के सिक्ख इतिहास की दो ऐसीं अहम घटनाएँ हैं जिन को कभी भी भुलायआ नहीं जा सकेगा। पिछले 37 सालों में भी इस शौर्यगाथा की याद फीकी नहीं पड़ी तो आने वाले समय में भी इस की याद लोग मन में हमेशा बनी रहेगी। श्री दरबार साहब पर फ़ौज की तरफ से टैंकों और तोपों के साथ हमला बेहद भयानक और ज़ालिमाना था। संत जर्नैल सिंह खालसा भिंडरावालों और उन के साथियों की तरफ से जिस तरह 4दिन तक फ़ौज का बहादुरी के साथ मुकाबला किया गया, उस ने अठारहवीं सदी के सिक्ख इतिहास को फिर सुरजीत कर दिखाया। उस समय इख़लाक और आत्म सम्मान का दिखावा करते गुरूधामों प्रति जिस श्रद्धा -भावना और दृढ़ता के साथ उन शूरवीरों ने जो इतिहास की सृजन करना की वह परमेशर की लहर में से प्रकट हुआ इतिहास था।
भयानक सर्वनाश क्यों घटा, इस का पृष्टभूमि क्या रहा? इस सम्बन्धित अब तक सैंकड़े लेख और अनेकों किताबें लिखीं जा चुकीं हैं। अलग -अलग पहलूयों से इस बारे खोज -पड़ताल भी की गई है। इस दुखदायी घटना के लिए समय की सरकारें ज़िम्मेदार हैं तो के बहुत सी राजनीतिज्ञ भी दोशी के तौर पर कटघरो में ले जाए हैं। जिन्होंने लगातार टकराव की तरफ बढ़ रही स्थिति को कोई सुखदाई मोड़ देने के लिए प्रभावी रोल अदा नहीं किया। इस समूचे दृश्य का निष्पक्ष जाँच नहीं हो सका। न ही पिछले लंबे समय से इस दुखांत के प्रभाव में से निकल सगे हैं।
हर एक ने इस दुखांत को निष्पक्ष आलोचना की जगह अपनी -अपने पक्ष और अपनी -अपने नज़रिए के साथ ही देखने का यत्न किया है। ग़ैर सिक्ख आलोचकों के लिए यह केवल घटीं घटनाओं की जगह सिक्ख सिद्धांतों की विशालता के पृष्टभूमि में भी जा कर परखने और चिंतन का वीसा है। जिस देश की आज़ादी के लिए सिक्ख भाईचारो ने अनेकों ही नहीं सब से अधिक बलियों दीं उस कौम के सब से पवित्र स्थान पर तोपों टैंका के साथ हमला किया जा रहा था, जिस ने सिक्खों का भारत प्रति विस्वास चकनाचूर कर दिया। सिक्ख मानसिकता अंदर बेगानापन का एहसास घर कर गया। पल में ही हिंद और पंजाब आहमने सामने आन खड़े नज़र आए। असली झटका तो यह लगा कि हकूमत ने तोपों टैंका के साथ श्री दरबार साहब पर हमला कर कर श्री अकाल तख़्त साहब ढह ढेरी करते सिक्खी ’’आत्म सम्मान ’’ को चुन्नोतीना किया। उस समय तक पानियों और इलाकायी मसले पंजाब और समूह पंजाबियों के थे। सिक्ख मसला तब भी और आज भी आत्म सम्मान, आत्माभिमान और सिक्खी पहचान का ही रहा है। हर साल ’84 के सर्वनाो की बरसी आती है तो सिक्ख भाईचारो के बड़े हिस्से को एक गहरी पीड़ा का एहसास होता है और उन के मन में से यह हूक निकलती है कि इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी केंद्र सरकार ने इस बड़ी गलती के लिए सिक्ख भाईचारे से मुआफी नहीं माँगी। पिछले लगभग तीन दशक से अधिक समय दौरान सरकार की तरफ से फ़ौजी कार्यवाही को सही सिद्ध करन के लिए समकालीन घटनाकर्मों को देश की एकता और अखंडता के लिए बड़ा ख़तरा बताया जाता रहा। बेशक्क केंद्र और राज सरकार की तरफ से ’84 के हमलो में गिरफ़्तार किये गए जोधपुरियों केस में अदालत के फ़ैसले उपरांत सिक्ख कैदियों को मुआवज़ा दिया गया उस ने सिद्ध कर दिया कि फ़ौजी हमला हर तरह ग़ैर वाजिब था। अफ़सोस है कि इस नुक्ते को आज तक सिक्ख नेताओं और बुद्धिजीवियों की तरफ से विचार और चिंतन का वीसा नहीं बनाया गया। सिक्ख भाईचारा हर क्षेत्र में देश के विकास के लिए अपना ठोस योगदान डालता आ रहा है। परन्तु तीसरा सर्वनाश, नवंबर ’84 के सिक्ख हत्याकांड और अब भी सिक्ख कम -संख्या के साथ जाने -अनजाने में देश भर में हो रही ज्यादतियों कारण सिक्ख भाईचारो में बेगानापन और उदासीनता की भावनायों पैदा हो रही हैं, उन को रोका जाना चाहिए और इस देश में सिक्ख भाईचारो का पहले वाला रुतबा बहाल किया जाना चाहिए।

केंद्र सरकार को यह बात भी अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि अंतरराशटरी स्तर पर अनेकों ऐसीं ताकतों सक्रिय हैं जो भारत प्रति अपने मंसूबों को हासिल करन के लिए सिक्ख भाईचारे को बार -बार देश के साथ टकरानो के लिए उत्तेजित करन की कोशिश करती रहती हैं। इस लिए यह बेहद ज़रूरी है कि केंद्र सरकार और देश की अलग -अलग राज्यों की सरकारें सिक्ख कम -संख्या प्रति अपने व्यवहार में तत्काल तौर पर सुधार करते ठोस और बड़े कदम उठाने।

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