जालंधर : मिर्जा गालिब की नज़र के बनारस से रूबरू कराती फिल्म ‘बनारसः का’बा-ए-हिन्दोस्तान’ की विशिष्ट स्क्रीनिंग का आयोजन आज हंसराज महिला महाविद्यालय में किया गया। कालेज की पूर्व छा़त्रा व दिल्ली की डाक्यमेंट्री मेकर बीनू राजपूत द्वारा निर्मित एवम् निर्देशित इस शार्ट फिल्म में गालिब की नजरों से बनारस को दिखाया गया है। गालिब के बनारस के प्रति प्रेम यहां की संस्कृति के प्रति आदर-भाव उनकी मस्नवी ;फारसी कविताओंद्ध चरागे-ए-दैर में बखूबी देखने को मिलता है। उनकी नजरों में बनारस हिंदोस्तान का काबा हैं। इस दौरान मिर्जा गालिब पर अधारित एक फोटो प्रदशर्नी का भी आयोजन किया गया जिसमें 63 फ्रेम्स के माध्यम से दर्शक गालिब के अनछूये पहलूओं से अवगत हुये।
इस शार्ट फिल्म की निर्देशिका बीनू राजपूत ने बताया कि बनारस वैसे तो हिन्दुओं की धार्मिक और मोक्ष स्थली है परन्तु गालिब एकमात्र शायर हैं जिन्होंने इस धर्मस्थल को मक्का कह कर संबोधित किया। अंग्रेजो से अपनी पैंशन सुचारु करने के लियेे ब्रिटिशाकालीन राजधानी कलकत्ता जाते वक्त सन 1827 में गालिब बनारस रुके । परन्तु यहां की तहजीब, तस्वीर और समाजिक ताने बाने से इतने प्रभावित हुये की यहां चार महीने तक रुके और अपने शब्दों में पिरोया । उस दौरान रचित गालिब की चरागे-ए-दैर मस्नवी ;फारसी कविताओंद्ध हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बन गई है। आज के दौर में इस तरह की मस्नवीओं को पढ़ने की, समझने की और उस पर विचार-विमर्श करने की बहुत जरूरत है ताकि हम हमारी साहित्यिक धारोेहर को पहचान सके और उसे बचा सके। आज की पीढ़ी को मिर्जा गालिब के बारे में कुछ खासा नहीं पता और न उनके साहित्य के बारे में उन्हें कुछ समझ है। मिर्जा नौशा की फारसी मस्नवी चरागे-ए-दैर एक ऐसी मिसाल है जो मजहबी अकीदों से बहुत परे थी। जिसमें गालिब की दूरदर्शित साफ झलकती है, और हमें ये समझ आता है कि उनकी नज़रो में लिए सिर्फ एक धर्म था इंसानियत धर्म। चरागे-ए-दैर एक मिसाल है हिंदू और मुसलमान की एकता की।
बीनू राजपूत ने कहा, ‘यूं तो आज भी बनारस की खूबसूरती को कहानियां, फिल्मों और डाक्यूमेंटियों में उकेरा जा चुका है मगर आज तक शायद कम ही लोग जान पाए कि एक मुसलमान शायर ने अपने जीवन की इतनी व्ख्यात मसनवी को बनारस से प्रभावित होकर लिखा। बनारस की हर छोटी से छोटी चीज को, वहां के योगी, अघोरी, साधू-सन्यासी, मंदिरों, घाटों, घंटे-घड़ियालों, यहां की तहजीब को देख कर गालिब ने उसे हिंदोस्तान का काबा कहा। जब मैंने चराग-ए-दैर मसनवी को पढ़ा और समझा तो मेरे मन में ये जिज्ञासा जाग गई कि एक महान शायर की बेपाक सोच को दुनिया के सामने लाना चाहिए और इसीलिए मैंने काबा-ए-हिंदोस्तान फिल्म बनाई जिसमें गालिब की नजरों से बनारस को दिखाया। इस फिल्म के जरिए मैं अपने अजीज शायर को श्रद्धांजलि दे सकूं।’
फिल्म के बाद कालेज की प्रिंसीपल डा अजय सरीन ने कहा, ‘बहुत ही बेहतरीन प्रयास किया है बीनू राजपूत ने ऐसी फिल्म को हमारे समक्ष लाकर। हमें ऐसे प्रयासों की सराहना के साथ-साथ इनके लिए सहयोग देने की आवश्यकता है जिससे कि ऐसे वृत्तचित्रों से युवाओं को जोड़ने का मंच बने और वे हमारी जड़ों को जाने व समझें।