गुरु-शिष्य परंपरा

एक समय था जब जिज्ञासु, ब्रह्मज्ञान को पाने के लिए गुरु की महीनों, वर्षों तक सेवा किया करते थे, अनेक प्रकार की परीक्षाओं से गुजरते थे तब जाकर उन्हें गुरु से दीक्षा प्राप्त होतीे थी। इस संदर्भ में वह जिज्ञासु भाग्यशाली हैं जो संत निरंकारी मिशन में सद्गुरु की शरण में आते हैं। ब्रह्मज्ञान के लिए केवल जिज्ञासा का होना अनिवार्य है चाहे वह अर्जुन की भांति जगाई गई हो या राजा जनक की तरह मन व्याकुल हो। यहाँ सद्गुरु, स्वयं अथवा किसी गुरसिख के माध्यम से इस निराकार प्रभु परमात्मा का बोध कराते हैं।

यहाँ सद्गुरु शिष्य की जाति, धर्म, संस्कृति, वेशभूषा, भाषा अथवा उसकी आर्थिक दशा पर ध्यान दिये बिना ब्रह्मज्ञान की यह दात प्रदान कर देते हंै। यहाँ तक कि कोई पढ़ा-लिखा हैं या नहीं, आयु में छोटा है या बड़ा, बहन है या भाई सभी को यह बख्शिश बराबर मिल जाती है। सभी का नाता इस निराकार प्रभु परमात्मा के परम अस्तित्व के साथ जोड़ दिया जाता है जो शाश्वत् है, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान है, अनंत तथा सर्वव्यापक है कण-कण मे,ं घट-घट में प्रतिबिम्बित है।

इसके अलावा सद्गुरु शिष्य के व्यक्तिगत, पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन में दखल नहीं देते। शिष्य अपनी पारिवारिक तथा सामाजिक जिम्मेदारियां उसी तरह निभाता है जिस तरह पहले निभाता आ रहा था। सद्गुरु अथवा मिशन उसे उनसे अलग नहीं करते। बल्कि ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के बाद उसके सभी रीति-रिवाज अथवा परम्परायें सार्थक हो जाती हंै। उसे पता चल जाता है कि यह हवन यज्ञ किसके नाम से किए जा रहे हैं आरती का थाल किस परमसत्ता के आगे घुमाया जा रहा है।

मगर सद्गुरु ब्रह्मज्ञान देकर शिष्य को भूल भी नहीं जाते। जहाँ सत्संग, सेवा और सुमिरन के साथ जुड़े रहने का आह्वान करते हैं, स्वयं भी उसकी हर खुशी में शामिल होने के लिए तत्पर रहते हंै। ब्रह्मज्ञान को कर्म में कैसे ढालें, इससे अपने जीवन में लाभ कैसे लिया जाए, इसके लिए निरंतर मार्गदर्शन करते रहते है।

परंतु यह पवित्र नाता ब्रह्मज्ञान के आगे नहीं बढ़ता। शिष्य कदापि अपने सद्गुरु के निजी जीवन में प्रवेश नहीं करता। जिस प्रकार से एक विद्यार्थी अपने शिक्षक के व्यक्तिगत जीवन या रिश्तेदारों के बारे में कोई प्रश्न नहीं करता। उसका ध्यान केवल शिक्षक द्वारा दी जा रही शिक्षा की तरफ ही रहता है, उसी प्रकार से एक शिष्य का अपने गुरु के प्रति नाता केवल ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति तथा उससे लाभ लेने का ही रहता है जिसे सद्गुरु ने उसे प्रदान किया और उस पर चलने की शिक्षा भी लगातार दी जा रही है।

ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् हमें यह अनुभव होता है कि सम्पूर्ण मानव जाति इस परमपिता परमात्मा की रचना है और संसार के सभी धर्म इस सर्वोच्च सत्ता का ही गुणगान करते हैं, विभिन्न नामों से पुकारते हैं परंतु अस्तित्व एक ही है। इसलिए, हम स्वयं को सभी के साथ एकमत पाते हंै न कि विपरीत।

प्रत्येक शिष्य के लिए यह लाभप्रद है कि वह ईश्वरीय ज्ञान को अपने जीवन में अपनाये और उससे लाभ प्राप्त करे। और जहाँ भी कोई प्रश्न हो उस प्रश्न का हल गुरु से प्राप्त करके दैवी कृपा प्राप्त करे। सदगुरु शिष्य के लिए न केवल आध्यात्मिक शिक्षक बन जाता है बल्कि वह शिष्य का मार्गदर्शक, माता-पिता, मित्र, सलाहकार, वकील, डाॅक्टर और न जाने किस-किस रूप में शिष्य का ध्यान रखता है। सद्गुरु शिष्य को दैवी कृपा प्रदान करता है और शिष्य का ईश्वर पर विश्वास सुदृढ़ करता है।

अतः शिष्य को केवल ईश्वरीय ज्ञान पर ही केन्द्रित रहना चाहिए और ईश्वरीय कृपा का आनंद लेना चाहिए जो उसे सेवा, सुमिरन तथा सत्संग में प्राप्त होता है। सदगुरु ने पांच प्रण देकर शिष्य को नफरत तथा अहंकार के दलदल से बचा लिया है जो संसार को धर्म के आधार पर, जाति, भाषा, क्षेत्र तथा संस्कृति के आधार पर बांटती है। शिष्य अपने सद्गुरु द्वारा प्रदत्त ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव में नहीं फंसता और बह्मज्ञान को अपने रोजमर्रा के जीवन मे अपनाकर एक मैत्रीपूर्ण तथा तनाव रहित जीवन जीता है।

’ मेम्बर इंचार्ज
प्रेस एवं पब्लिसिटी
संत निरंकारी मण्डल

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