संत निरंकारी मिशन में सद्गुरु का स्थान

संत निरंकारी मिशन, 24, 25 व 26 नवम्बर, 2018 को अपने 71वें वार्षिक निरंकारी संत समागम का आयोजन कर रहा है। समागम में भारत व विश्व से लाखों की संख्या में श्रद्धालुओं के सम्मिलित होने की सम्भावना है। इस सन्दर्भ में आशा है आपके सम्मानित समाचार पत्र के पाठकों के लिये यह लेख

सद्गुरु को सदैव निराकार, प्रभु, परमात्मा का साकार रूप माना गया है। ईश्वर स्वयं सद्गुरु के घट में प्रकट होता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भाँति सद्गुरु के पास तमाम दिव्य गुण, दिव्य शक्तियाँ आ जाती हैं जो वह सृष्टि के कल्याण के लिए प्रयोग करता है। भूले भटके लोग जो केवल शरीर के तल पर ही जीते हैं और शरीर के ही सुखों को जीवन जीने का उद्देश्य मानते हैं, सत्य के मार्ग को भूलकर सांसारिक पदार्थों के माया जाल में फंसे रहते हैं, उनका मार्गदर्शन करता है, उद्धार करता है।

संत निरंकारी मिशन में हम भाग्यशाली हैं कि सद्गुरु सदा ही निराकार एवं साकार दोनों रूपों में हमारे अंग-संगत रहता है। यहाँ सद्गुरु शरीर रूप में निराकार प्रभु परमात्मा का ही स्वरूप है। अतः इसके दोनों ही रूप हैं दोनों ही पहचान हैं। जब हम सद्गुरु को उसके निराकार रूप में याद करते हैं तो सद्गुरु और निराकार परमात्मा में कोई अन्तर, कोई भेद नहीं होता। एक के प्रति की जाने वाली प्रार्थना दूसरे तक स्वयं पहुँच रही होती है दोनों ही सुनते हैं।

जब हम सद्गुरु से साकार रूप में मिलते हैं तो वह निराकार ईश्वर का ही प्रतिनिधित्व करता है। वास्तव में निराकार ईश्वर ही सद्गुरु के घट में बैठकर कार्य करता है। अतः यहाँ सद्गुरु शरीर में रहते हुए भी केवल शरीर का नाम नहीं। निराकार के बिना तो वह हमारे जैसा एक साधारण व्यक्ति कहलाएगा। इसीलिए सद्गुरु की पहचान निराकार से ही है जो उसके घट में बैठकर अपने काम करता है। सद्गुरु के हर कार्य में निराकार प्रभु परमात्मा शामिल होता है। अतः सद्गुरु संसार के अन्य नागरिकों की भाँति कोई साधारण व्यक्ति नहीं। वह संसार के सभी जाति-धर्म, नसल, भाषा एवं स्ंास्कृति से ऊपर होता है, ऐसे सभी बन्धनों से मुक्त होता है।

इससे हम इस तथ्य पर पहँुच जाते हैं कि निराकार ईश्वर की भाँति सद्गुरु भी शाश्वत् है। परमात्मा की तरह ही न इसका जन्म है न मरण। अपने निराकार रूप में सदा विद्यमान रहते हुए केवल शरीर बदलता है जोकि वह कभी भी बदल सकता है। यह नया घट नया शरीर कौन सा हो इसका निर्णय भी ईश्वर अथवा गुरु स्वयं ही करते हैं। संसार की किसी शक्ति, संगठन अथवा संस्था के पास यह अधिकार नहीं है।

इस सत्य सिद्धान्त के संत निरंकारी मिशन के इतिहास में स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। मिशन के संस्थापक बाबा बूटा सिंह जी ने सन् 1943 में अपने इस नश्वर शरीर का त्याग करने से पहले ही अपनी निराकार रूप में सद्गुरु की पहचान सफेद दुपट्ठा पहनाकर बाबा अवतार सिंह जी को सौंप दी और उन्हें मिशन का आध्यात्मिक मागदर्शक घोषित कर दिया। इसी सिद्धांत को मानते हुए बाबा अवतार सिंह जी ने अपने जीवन काल में ही 3 दिसम्बर 1962 को बाबा गुरबचन सिंह जी को मिशन का सद्गुरु घोषित किया और उनका सद्गुरु का निराकार रूप बाबा गुरबचन सिंह जी के घट में प्रकट हो गया। इसके पश्चात् 7 वर्ष यानि अपने अंतिम श्वासों तक एक गुरसिख के रूप में मिशन की सेवा करते रहे। बाबा गुरबचन सिंह जी ने 17 वर्ष तक इस मिशन का मार्गदर्शन किया और 24 अपैल 1980 को जब कुछ सत्य विरोधी तत्वों के हाथों शहीद हुए तो अंतिम श्वास से पहले उनके मुख से निकला ‘भोला!’ उसी क्षण उनका निराकार सद्गुरु का रूप प्यार से ‘भोला’ बुलाए जाने वाले बाबा हरदेव सिंह जी के घट में प्रकट हो गया।

बाबा हरदेव सिंह जी ने 36 वर्ष इस मिशन का मार्गदर्शन किया और 13 मई 2016 को कनाडा में एक कार दुर्घटना में इस शरीर को त्यागकर ब्रह्मलीन हो गए। मगर उन्होंने उससे पहले ही मिशन के आने वाले आध्यात्मिक मार्गदर्शक के रूप में इसकी संभाल करने के लिए पूज्य माता सविन्दर हरदेव जी के नाम के संकेत दे दिये थे।

सद्गुरु माता सविन्दर हरदेव जी महाराज ने भी इस दिव्य सिद्धान्त का पालन करते हुए अपने जीवन काल में ही 16 जुलाई 2018 को पूज्य सुदीक्षा जी को निरंकारी सद्गुरु घोषित कर दिया जिसकी औपचारिकता अगले दिन 17 जुलाई को एक विशाल सत्संग कार्यक्रम में निभाई गई। सद्गुरु माता सविन्दर हरदेव जी महाराज ने परम् पूज्य सुदीक्षा जी को तिलक लगाया और सद्गुरु के पावन आसन पर विराजमान कर मिशन में सद्गुरु की आध्यात्मिक शक्तियों का प्रतीक माना जाने वाला सफेद दुपट्टा पहनाया। आज सद्गुरु माता सुदीक्षा जी महाराज इस मिशन का मार्गदर्शन कर रहे हैं।

संत निरंकारी मिशन में सद्गुरु एक पूर्ण ब्रह्मवेत्ता के रूप में हर उस भक्त का स्वागत करता है जिसके मन में इस परम् सत्य को जानने की इच्छा है जिज्ञासा है। वह किसी भी धर्म का अनुयायी हो, किसी भी जाति से सम्बन्ध रखता हो, किसी भी धर्मग्रन्थों का पठन-पाठन करता हो, किसी भी धर्म-स्थान पर जाकर किसी भी रूप में पूजा, अर्चना अथवा इबादत करता हो, सद्गुरु उसे कोई नया मार्ग नहीं बताते बल्कि ब्रह्मज्ञान प्रदान करके इस निराकार प्रभु परमात्मा से नाता जोड़ देते हैं, मंज़िल पर पहंँुचा देते हैं। इस प्रकार जिज्ञासु द्वारा की जा रही सत्य की तलाश समाप्त हो जाती है और आगे के लिए भी किसी प्रकार के रीति-रिवाजों की आवश्यकता नहीं रहती। अब सद्गुरु उसके ब्रह्मज्ञान की संभाल करते हैं। और इससे जीवन में लाभ कैसे लेना है इसके लिए अपने भक्तों का निरंतर मार्गदर्शन करते हैं। वास्तव में ब्रह्मज्ञान देकर हर भक्त को अपनी पहचान दे देते हैं और भक्त भी सत्संग इत्यादि में सद्गुरु का प्रतिनिधित्व करने लग जाता है।

ब्रह्मज्ञान के द्वारा मानवता के प्रति सबसे बड़ा परोपकार यह है कि मानव-मानव के समीप आ जाता है दूरियां समाप्त हो जाती हैं। हर भक्त को अहसास हो जाता है कि वह एक ही मानव परिवार का सदस्य है। धर्म, जति, भाषा, संस्कृति अथवा क्षेत्र के आधार पर किए जा रहे तमाम भेदभाव समाप्त हो जाते हैं। ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होते ही बोध हो जाता है कि हम सभी एक ही परमपिता-परमात्मा की संतान हैं तो हमारे अन्दर स्वतः ही ‘सारा संसार-एक परिवार’ की भावना जाग्रत हो जाती है। सबको अपनी अनेकता में एकता का अहसास होने लगता है। हमारे मनों में दूसरों के प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना नहीं रहती और हम सद्भाव तथा शांति के वातावरण में स्थित हो जाते हैं।

यहाँ सद्गुरु यही शिक्षा देते हैं कि सांसारिक उपलब्धियों तथा आध्यात्मिक विचारधारा में कोई टकराव नहीं। दोनों पहलू साथ-साथ चल सकते हैं मगर इस बात का ध्यान रखा जाए कि लक्ष्य दोनों का ही हो मानव मात्र का कल्याण, हर व्यक्ति का भला। हम कोई भी कार्य करें हम यह ना भूलें कि हम सभी इन्सान हैं कोई मशीन अथवा जड़ वस्तु नहींे। हम सब के भीतर आत्मा है, हमारी भावनाएं हैं, आकांक्षाएं हैं, लक्ष्य हैं, अनेक सामाजिक जिम्मेदारियां हैं। अतः संसार की उन्नति, इसका सुधार भौतिक उपलब्धियों अथवा पदार्थों में नहीं, इन्सान की बेहतरी में है। इन्सान के विचार, उसकी भावनाएं, आकांक्षाएं बेहतर हों, शुद्ध एवं निर्मल हों, और इसका एक मात्र साधन है-ब्रह्मज्ञान। हम हर स्थान पर हर परिस्थिति में निरंकार प्रभु परमात्मा को हाज़िर-नाज़िर समझकर जीवन में कोई कदम उठाएं।

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